सम्प्रेषण का अर्थ एवं महत्व बताईये
Q.01 संप्रेषण का अर्थ एवं महत्व बताइए। संप्रेषण प्रक्रिया को उदाहरण द्वारा समझाइए तथा इसे प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
अथवा
शिक्षण अधिगम में संप्रेषण प्रक्रिया का अर्थ तथा सार्थकता बताइए।
अथवा
संप्रेषण क्या है? शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में इसकी क्या उपयोगिता है?
अथवा
संप्रेषण की प्रक्रिया समझाइए । संप्रेषण पर किन कारकों का प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर -: संप्रेषण का अर्थ - (meaning of communication) शिक्षण की सारी प्रक्रिया विभिन्न प्रकार से ज्ञान , बोध एवं समझ विकसित करने के लिए की जाती है। अतः ज्ञान की ज्ञानात्मक संरचना शिक्षण के स्रोत में एक महत्वपूर्ण संरचना है। किस प्रकार की शिक्षण प्रणाली में शिक्षक तथा छात्र दोनों ही सक्रिय रहकर अंतः प्रक्रिया करते हैं। इस प्रक्रिया में संचार माध्यमों की आवश्यकता पड़ती है।
पाॅल लीगंस के अनुसार - " संचार वह क्रिया है, जिसके द्वारा दो या अधिक लोग विचारों , तथ्यों , भावनाओं , प्रभावोंं आदि का इस प्रकार विनिमय करते हैं कि संचार प्राप्त करने वाला व्यक्ति संदेेेेश के अर्थ, उद्देश्य तथा उपयोग को भली-भाँति समझ लेेेता है।"
" communication is the process by which two or more people exchange facts, ideas, feelings ,Impressions and the like in a manner that the receiver gains a clear understanding of the meaning intent and use of the message."
संचार एक प्रक्रिया है जो कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य घटित होती है तथा इसके माध्यम से अभिवृत्तियों, इच्छाओं, आदर्शों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है। शिक्षण प्रक्रिया में संचार शब्द के लिए जो उपयुक्त शब्द है, वह है, संप्रेषण।
संचार या संप्रेषण के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कृच की परिभाषा दी जा सकती है-:
" किसी वस्तु के विषय में सामान्य या सहभागी ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रतीकों का उपयोग ही संप्रेषण है। यद्यपि मनुष्यों में संप्रेषण का महत्व पूर्ण माध्यम भाषा ही है, फिर भी अन्य प्रतीकों का प्रयोग किया जा सकता है।"
प्रस्तुतीकरण में बालकों के सामने विषय उपस्थित किया जाता है। उद्देश्य कथन के समाप्त हो जाने के पश्चात बालक का ध्यान नए पाठ पर केंद्रित हो जाता है, जिससे शिक्षक के सामने यह समस्या उठ खड़ी होती है कि बालक को नए ज्ञान से किस प्रकार परिचित कराएं? वास्तव में यह उत्सुकता बढ़ाने का काम शिक्षक ही करता है। इसलिए इसे संप्रेषण कौशल कहा गया है।
पाठ्यवस्तु को स्वाभाविक तथा तार्किक रूप में व्यवस्थित करना शिक्षक का प्रथम कर्तव्य है। पाठ्यवस्तु के विभिन्न सोपान बना लेने चाहिए, परंतु उनकी अपनी पूर्णता में विभाजन का कोई प्रभाव नहीं पढ़ना चाहिए। उसमें तारतम्य हो, आगे आने वाले सोपानो का आभास पहले सोपान से ही मिल जाए। सोपानो के विभाजन में तारतम्य टूटने ना पाए, इसका सदैव ध्यान रखना चाहिए। इसका उद्देश्य ही इस विषय का स्पष्टीकरण करता है। स्पष्टीकरण के पश्चात संपूर्ण सोपानो को समवेत कर दिया जाता है, ताकि पाठ को संपूर्ण रूप से ग्रहण करने में विद्यार्थियों को सहायता मिले।
पाठ के विभाजन के विषय में एक विद्वान ने कहा है," यह विभाजन इस ढंग से होना चाहिए कि प्रत्येक सोपान स्वयं में पूर्ण इकाई और साथ-साथ आगे आने वाले सोपान से संबंधित हो; अर्थात प्रत्येक सोपान अपनेे पूर्व के सोपान सेेेेे उत्पन्न होता प्रतीत हो।"
दूसरे शब्दों में, प्रत्येक सोपान के अंत में आगे आने वाले सोपान का आभास अथवा संकेत मिलता रहे। इसके लिए हम ऐसे बोध प्रश्न भी करते हैं, जिनके उत्तरों से पाठ को समझ लेने या ग्रहण कर लेने का अवसर मिलता है। एक अच्छे संप्रेषण से श्रेष्ठ शिक्षण की आशा की जाती है।
अधिगम से इसका सीधा संबंध है, इसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं-:
- छात्रों के पूर्व अनुभव का ध्यान- शिक्षण से पूर्व शिक्षक को छात्रों को पूर्व अनुभव का ज्ञान कराना चाहिए। अच्छी शिक्षण कला में छात्रों के पूर्व ज्ञान पर विशेष बल और ध्यान दिया जाता है। पूर्व ज्ञान के आधार पर बालकों को नवीन ज्ञान देना ही शिक्षण की सफलता का प्रतीक है।
- निर्देशात्मकता- अच्छे शिक्षण में संप्रेषण आदेशात्मक ना होकर निर्देशात्मक होता है। शिक्षक अपने कौशल से ही ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता है जिसके अनुसार छात्र सहज ही गुण ग्रहण करने की ओर झुकता है।
- अच्छी योजना- संप्रेषण का विषय, समय, शिक्षा उपकरण तथा इनमें प्रयोग की जाने वाली शिक्षण पद्धति आदि मिलकर योजना बनाती है। उसका शिक्षण कौशल उसके श्रेष्ठ पाठ योजना पर निर्भर करता है। शिक्षण में संप्रेषण प्रणाली बद्ध या सुव्यवस्थित होना चाहिए।
- उचित पथ प्रदर्शन- संप्रेषण शिक्षण का वह भाग है, जिसमें शिक्षक के निर्देश शिक्षार्थी के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करते हैं। संप्रेषण के समय सामाजिक वातावरण होना चाहिए
- जनतंत्रात्मकता- कक्षा में सामाजिक एवं जनतंत्रात्मक वातावरण होना चाहिए , ऊंच-नीच की भावना से परे समता भाव से शिक्षण कराना चाहिए।
- बालकों की कठिनाइयों का निदान- कोई बालक किसी विषय में सफल होता है, तो किसी में असफल। अध्यापक बालकों की कठिनाइयों को दूर करने का प्रयत्न करता है। अच्छे शिक्षण में बालकों की कठिनाइयों का निदान होता है।
- उपचारपूर्ण होना- अच्छा शिक्षण उपचार पूर्ण होता है। अध्यापक उनकी भूलों को बताकर उन्हें सुधारता है। नवीनतम विधियों की जानकारी रखने वाला कुशल अध्यापक बालकों की व्यक्तिगत एवं सामूूूहिक कठिनाइयों का उत्तम उपचार करने में समर्थ होता है।
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