भक्ति और साधना
भक्ति की शक्ति
परमात्मा के प्रति समर्पित भाव है भक्ति का केंद्रीय तत्व है!हिंदी साहित्य के मध्यकाल के पूर्वार्ध में रचा गया अधिकांश भाग का भक्ति केंद्रित है ! भक्ति के अंतर्गत निरंतर परमात्मा के सानिध्य का अनुभव भक्ति की भाव भूमि है! परमात्मा के साथ भक्त की दास भाव या सखाभाव रूप में sanprati का भाव समग्र भक्ति के अंतर्गत आने वाली भाव पद्धति है !
ज्ञान और भक्ति यह दो भाव परमात्मा को प्राप्त करने के आधार हैं ! ज्ञान का मार्ग कठिनाइयों से भरा है,जबकि भक्ति का मार्ग सबको सहज और सुलभ है ! भक्ति के अंतर्गत सभी मानव परमात्मा के साथ अपनी संलग्नTA का अनुभव कर सकते हैं ! भक्ति योग में भक्ति सामाजिक परिवर्तन का आधार भी प्रस्तुत कर रही थी इसीलिए यह भी उस युग में उद्घाटित किया गया था कि ''जात -पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई! भक्ति व्यक्ति के आंतरिक संस्कारों को परिमार्जित करने का आधार है ! वही वह सामाजिक परिष्करण का भी मार्ग प्रशस्त करती है ! भक्ति एक शाश्वत भावना है इसलिए जब भी हम इश्वर के समीप होते हैं और जब भी हम सामाजिक कल्याण की भावना से परिपूर्ण होते हैं तब एक भक्त की भूमिका में हम होते हैं ! भक्त परमात्मा से अपना संबंध जब दास रूप में स्थापित कर लेता है तब वह स्वयं अपने भीतर भगवान के विराट रूप से भर उठता है , इसी भाव की भक्ति कवि रैदास की है उन्होंने कहा है- '' प्रभु जी! तुम चंदन हम पानी। तभी वे रात दिन ईश्वर स्मरण में लीन रहना चाहते हैं ,रैदास आचरण से मूलत: संत थे और साधना में लीन रहते थे , उन्होंने परमात्मा को कृष्ण, राम, गोविंद नाम से स्मरण किया है उनके भाव वैराग्य और साधना के साथ विनम्रता और आत्मसम्मान से युक्त है ! भक्ति और साधना की कसौटी पर मीराबाई पूर्णरूपेण खरी उतरी है, कृष्णमय हो चुकी थी- ''मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ,जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई '' कहकर मीराबाई ने संपूर्ण पारिवारिक और सामाजिक बंधनों से मुक्ति ले ली ! मीरा ने अपने काव्य आचरण से नारी मुक्ति का पथ प्रशस्त किया है ! वह इस मायने में भक्ति काल के परिदृश्य में स्त्री जागरण का संदेश देने वाली कवयित्री हैं!
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