पाठ 9 स्वामी विवेकानंद
पावन भूमि भारत के कोलकाता( पश्चिम बंगाल) में 12 जनवरी 1863 ईस्वी को महा संक्रांति के पर्व पर दत्ता परिवार में एक बालक का जन्म हुआ।
बालक नरेंद्र की मां भुवनेश्वरी धर्म परायण और शालीन महिला थी। रामायण और महाभारत उनके प्रिय ग्रंथ थे इसका प्रभाव बालक नरेंद्र पर भी पड़ा।
उनके पिता विश्वनाथ दत्त कोलकाता हाई कोर्ट में वकील थे वे अंग्रेजी तथा फारसी के अच्छे विद्वान थे। नरेंद्र की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा घर में हुई। मां ने उन्हें अंग्रेजी और बंगला का अक्षर ज्ञान कराया।
बालक नरेंद्र पशु-पक्षियों से बहुत प्यार करते थे।
आस-पास रहने वाले पशु-पक्षी , गाय , बकरी, मोर,कबूतर आदि के बीच उनका बहुत साथ समय बीत जाता। पशु-पक्षियों के प्रति उनका प्रेम जीवन के अंत तक बना रहा।
नरेंद्र ने खेल तथा अन्य विषयों में भी रुचि दिखाई उन्होंने एक नाटक कंपनी और व्यायाम शाला गठित की थी। नरेंद्र तलवार चलाने , कुश्ती लड़ने और नाव चलाने में भी बहुत कुशल थे। पठन-पाठन व संगीत में भी उनकी बहुत दिलचस्पी थी।
नरेंद्र ने 1878 में हाईस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वे कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में,फिरस्कॉटिक मिशनरी बोर्ड के एक कॉलेज में दाखिल हुए।इस कॉलेज के प्रिंसिपल हेस्ती भारतीय दर्शन के प्रेमी थे।वे अपने विद्यार्थियों पर बहुत स्नेह रखते थे। कक्षा में पढ़ाते हुए उन्होंने एक दिन कहा - "यदि किसी को समाधि की अवस्था का ज्ञान प्राप्त करना हो तो दक्षिणेश्वर जाकर रामकृष्ण परमहंस को देखना चाहिए।"
नरेंद्र की उत्सुकता जागृत हुई एकांत में चिंतन मनन करने का उनका विचार बचपन से ही था, पर वह किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के बिना ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन दिनों कोलकाता में ब्रह्म समाज की बड़ी चर्चा थी। वह ब्रह्म समाज के महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर से जाकर मिले और उनसे प्रश्न किया। क्या आपने ईश्वर को देखा है?
देवेंद्र नाथ ठाकुर ने कहा- "नहीं, देखा तो नहीं है,परंतु महसूस किया है।"
इस उत्तर से संतुष्ट ना होकर पर गंगा तट पर स्थित काली के सुप्रसिद्ध मंदिर दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण परमहंस के पास जा पहुंचे।
वहां पर उन्हें जवाब मिला - हां ईश्वर को देखा है ठीक वैसे ही जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूं,,श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा।।
उनके इस उत्तर से नरेंद्र स्तब्ध रह गए स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा लेकिन इश्वर की परवाह किसे है? अगर तुम उसके लिए आंसू बहा सकते हो तो तुम उसे देख सकते हो।
इस उत्तर को सुनकर स्वामी विवेकानंद जी ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया।महान गुरु ने शिष्य को और शिष्य ने अपने गुरु को पहचाना । इस प्रकार श्री रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में नरेंद्र नाथ की सभी शंकाएं मिटती चली गई और उन्होंने अपने आप को गुरु की आज्ञा अनुसार कार्य के लिए तैयार किया ।
1884 ई. में नरेंद्र नाथ बीए की तैयारी कर रहे थे तभी अचानक उनके पिता की मृत्यु हो गई उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया- बड़ा होने के नाते परिवार के भरण-पोषण का भार अब मुझे निभाना है।
पिता अपने पीछे कर्ज छोड़ गए थे। नरेंद्र नाथ पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी की खोज में भटकने लगे ।
एक बार गुरु रामकृष्ण परमहंस से उन्होनें कहा-
नरेंद्र मंदिर के अंदर गए लेकिन मां के ध्यान में इतने डूब गए कि सुध ही ना रही।
रामकृष्ण परमहंस जो वास्तव में शिष्य की परीक्षा ले रहे थे उन्होंने आशीर्वाद दिया। इसके बाद नरेंद्र नाथ को एक नौकरी मिल गई । सन 1886 में रामकृष्ण परमहंस ने समाधि से 3 दिन पूर्व नरेंद्र नाथ को यह कहते हुए उत्तराधिकारी बनाया। आज सब कुछ तुम्हें देखकर में रंग बन गया हूं मैंने योग द्वारा शक्ति को तुम्हारे अंदर प्रविष्ट कराया है, उससे तुम महान कार्य करोगे।
सन 1888 में अपने गुरु की शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने के लिए उन्होंने भारत-भ्रमण किया। 1892 ईस्वी में दक्षिण भारत का भ्रमण किया और कन्याकुमारी पहुंचे। उन्होंने यहां के मंदिर में देवी दर्शन किए और समुद्र की एक स्थान पर तपस्या में लीन हो गए। उन्हें यहां दिव्य अनुभूति हुई और उन्होंने देश सेवा का प्रण लिया।
1893 ई. में वे अमेरिका गए। अमेरिका जाने के पूर्व उन्होंने अपना नाम विवेकानंद रखा।
11सितम्बर 1893 ई.को शिकागो में विश्व धर्म महासभा का अधिवेशन प्रारंभ हुआ। स्वामी विवेकानंद भाषण देने खड़े हुए अंग्रेजी परंपरा के अनुसार लेडीस और जेंट्स में ना कहकर "डियर सिस्टर एंड ब्रदर" संबोधित किया।
स्वामी जी ने धर्म की व्यापकता और समन्वय पर प्रकाश डाला तो श्रोता स्तब्ध रह गए।
भारत में सेवा कार्य करने के लिए उनके सहयोगी बने 'अनेक अमेरिकी मित्र' । उनमें एक थी मार्गरेट ई नोबल जो बाद में स्वामी जी की शिष्या बनी और भगिनी निवेदिता के नाम से विख्यात हुई।
कोलकाता में रहकर स्वामी जी ने सभी धर्मों को एक ही धर्म के विभिन्न रूप जानकर उनमें परस्पर भाईचारे की स्थापना के लक्ष्य की पूर्ति के लिए सराहनीय कार्य किए।
4 जुलाई सन 1902 को 40 वर्ष की कम आयु में स्वामी विवेकानंद ने अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया।
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