हमारैं हरि हारिल की लकरी संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या। कक्षा 10वीं हिंदी क्षितिज भाग 2
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी। सु तौ ब्याधि हमकौं ले आए, देखी सुनी न करी । यह तौ 'सुर' तिनहिं लै सौंपो, जिनके मन चकरी ॥
संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 के पाठ पद से लिया गया है इसके रचयिता सूरदास जी हैं ।
प्रसंग– प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं कि हमारे कृष्ण तो उस हारिल पक्षी के समान हैं जो कभी लकड़ी से मुक्त नहीं होता है। अतः वे हमें अति प्रिय हैं।
भावार्थ-गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! कृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी उठते-बैठते-उड़ते समय अपने पंजों में लकड़ी या तिनका दबाकर रखता है ठीक उसी प्रकार हमने मन, वचन एवं कर्म से नन्द बाबा के बेटे (कृष्ण) को हृदय से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया है। हम तो सोते-जागते, स्वप्न में, दिन में तथा रात में कृष्ण-कृष्ण की रट लगाए रहती हैं। हे उद्धव जी! तुम्हारे द्वारा दिए जा रहे योग- ज्ञान को सुनकर तो ऐसा लगता है मानो हमने कोई कड़वी ककड़ी खा ली है। तुम तो हमारे लिए एक ऐसा रोग लेकर आ गए हो जिसको हमने न कभी देखा है, न सुना है और न उसका उपभोग किया है।
कवि सूरदास जी लिखते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहती हैं। कि हे उद्धव ! यह योग-ज्ञान का सन्देश आप ऐसे लोगों को जाकर दें जिनका मन चकई के समान चंचल एवं चलायमान होता है।
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