काव्य बोध। रस तथा उनके स्थाई भाव।
व्याकरण
(अ) काव्य बोध
1. रस
परिभाषा—काव्य में रस का अर्थ है ‘आनन्द की प्राप्ति’ । कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ने-
सुनने या देखने से पाठक को एक प्रकार के विलक्षण आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहते हैं।
काव्यास्वादन के अनिर्वचनीय आनन्द को रस कहा गया है।
रस काव्य की आत्मा है, काव्य का प्राण है। रस की अनुभूति के समय मन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
रस के अंग-रस के चार अंग हैं-
1. स्थायी भाव, 2. संचारी भाव, 3. अनुभाव, 4. विभाव।
1. स्थायी भाव–सहृदय (रसिक या सामाजिक या दर्शक या पाठक) के हृदय में जो भाव स्थायी रूप
से विद्यमान रहते हैं अर्थात् चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। इन्हें छिपाया नहीं
जा सकता। इनके स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता। दस रसों की तरह स्थायी भाव भी दस माने गये हैं।
2. संचारी भाव-आश्रय के चित्त में जल्दी-जल्दी उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी
भाव कहते हैं। जैसे-भयभीत के मन में उत्पन्न चिन्ता, शंका, त्रास, मोह, जड़ता, उन्माद आदि भाव संचारी भाव
कहलाते हैं।
स्थायी भाव यदि सरोवर में स्थित जल की तरह है तो संचारी भाव उसमें उठने वाली नन्हीं-नन्हीं लहरें हैं
जो शीघ्र उठकर फिर उसी जल में विलीन हो जाती हैं, अर्थात् भाव जल की लहरों या जल बुलबुले की तरह
प्रकट होकर नष्ट होते रहें और अन्य भावों द्वारा दबाये जा सकें, उन्हें ही संचारी भाव कहते हैं। ये भाव रस के
उपयोगी अंग बनकर जल तरंग की तरह संचरण करते रहते हैं। इसलिए इन्हें 'संचारी भाव' कहा जाता है। नाना
प्रकार से अभिमुख-अनुकूल होकर चलने के कारण इन्हें 'व्यभिचारी भाव' भी कहते हैं। ये स्थायी भाव के साथी
हैं।
संचारी भावों की संख्या वैसे तो असंख्य मानी जाती है, किन्तु मुख्यतः उसकी संख्या 33 मानी गयी है,
जो निम्नलिखित हैं—निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिन्ता, दीनता, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास,
अवहित्था, मति, व्याधि, मरण, वितर्क, जड़ता।
उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष,
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